करेला की खेती | Bitter Gourd Farming | करेला की खेती से लाभ

दोस्तो आज के इस लेख में मैं आपको करेले की खेती करने के वारे में सम्पूर्ण जानकारी step by step बताऊंगा की खेती में कोन से करेले की उन्नत किस्म को लगाने चाहिए, करेले की बुआई के लिए खेत को कैसे तैयार करनी चाहिए, करेले के बीज की मात्रा क्या होनी चाहिए, करेले की बुआई कब करनी चाहिए, करेले के फसल में सिंचाई कितनी करनी चाहिए, करेले के फसल से रोग और खरपतवार को कैसे दूर करनी चाहिए सारी चीजे प्रैक्टिकली बताऊंगा

करेला की खेती | Bitter Gourd Farming | करेला की खेती से लाभ

करेले की खेती से सम्बंधित जानकारी

करेले को सब्जी के रूप में उगाया जाता है, इसके पौधे बेल के समान होते हैं, इसलिए इसे बेल की फसल के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। करेला भारत में लगभग हर जगह उगाया जाता है। करेले की सब्जी बहुत ही स्वास्थ्यवर्धक मानी जाती है। करेले को सब्जी के रूप में पकाकर सेवन करने के अलावा करेले का रस और करेले का आचार भी उपयोग किया जाता है। करेले का जूस पीने से पेट की बीमारियाँ दूर हो जाती हैं और करेले का उपयोग मधुमेह के इलाज के लिए भी किया जाता है।

यह एक औषधीय पौधा है और इसके फल खाने से कई बीमारियाँ ठीक हो जाती हैं। करेला आर्द्र और गर्म जलवायु में उगाया जाता है। अगर आप भी करेले की खेती करना चाहते हैं तो इस पोस्ट में आपको करेला कब और कैसे उगाएं आदि तरह की जानकारी मिलेगी और साथ ही करेला उगाने के फायदे भी मिलेंगे।

करेले की खेती करने के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान

करेले को उगाने के लिए किसी विशिष्ट प्रकार की मिट्टी की जरूरत नहीं होती है और इसे किसी भी उपजाऊ मिट्टी में बिना किसी समस्या के उगाया जा सकता है, हालाँकि रेतीली दोमट मिट्टी उगाने के लिए उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा खेती में उचित जल निकासी होनी चाहिए। इसकी खेती का पी.एच. मान 6 से 8 तक होनी चाहिए। करेले को उगने के लिए गर्म और शुष्क जलवायु की जरूरत होती है और इसकी सबसे अच्छी फसल गर्मियों में होती है।

यह पौधा ठंड के मौसम को आसानी से सहन कर लेता है, लेकिन सर्दियों में पड़ने वाला पाला पौधे को नुकसान पहुंचाता है। यह सामान्य तापमान पर अच्छी तरह से बढ़ते हैं, लेकिन बीजों को अंकुरित होने के लिए 20 डिग्री तापमान की जरूरत होती है। इस पौधे को अच्छी वृद्धि के लिए उच्च तापमान की जरूरत होती है।

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करेले की उन्नत प्रजातियां

कम समय में अधिक उत्पादन करने के लिए करेले की कई उन्नत प्रजातियां उगाई गई हैं और इन्हें उगाकर किसान भाई कम समय में अच्छा मुनाफा भी कमाते हैं। इसके अलावा विभिन्न जलवायु क्षेत्रों और मिट्टी में उगाने के लिए तैयार की गई प्रजातियां भी हैं। यही कारण है कि बीज खरीदते समय बीज पर सावधानीपूर्वक शोध करना चाहिए। जिसकी जानकारी इस प्रकार है:-

कोयम्बटूर लौग  

करेले की इस प्रजाति को विशेष रूप से दक्षिणी भारत में उगाया जाता है। यह पौधा काफी दूर तक फैलता है और खूब फल देता है। इस प्रजाति को परिपक्व होने में 65-80 दिन लगते हैं और प्रति हेक्टेयर 40 क्विंटल के हिसाब से उपज होता है।

कल्याणपुर बारहमासी  

चन्द्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय द्वारा उगाई गई बारहमासी कल्याणपुर प्रजाति पूरे वर्ष फसल पैदा करती है। करेले की यह किस्म 60-70 दिनों में उत्पाद के लिए तैयार हो जाती है। इसके पौधे गर्मी और बरसात दोनों मौसम में उगाए जा सकते हैं। इसके फलों का रंग गहरा हरा होता है। एक हेक्टेयर खेत से आप लगभग 60-65 क्विंटल की उपज प्राप्त कर सकते हैं।

हिसार सेलेक्शन  

यह प्रजाति मुख्यतः उत्तरी भारत में उगाई जाती है। पंजाब और हरियाणा में इसे ज्यादा पसंद किया जाता है। पौधे का फैलाव छोटा होता है तथा प्रति हेक्टेयर खेत में लगभग 40 क्विंटल के हिसाब से उपज प्राप्त होती है।

पूसा विशेष  

पूसा विशेष प्रजाति कम से कम समय में पककर तैयार हो जाती है। ये पौधे 55-60 दिन में फल देने लगते हैं। इस प्रजाति के पौधों के फल छोटे और मोटे होते हैं। इनकी प्रति हेक्टेयर खेत में लगभग 60 क्विंटल की उपज होती है।

इसके अलावा ऐसी कई प्रजातियां हैं जो जलवायु के आधार पर अधिक पैदावार के लिए उगाई जाती हैं। जिसमें एस डी यू- 1, पूसा संकर- 1, पूसा दो मौसमी, पूसा औषधि, पंजाब- 14, पंजाब करेला- 1, कल्यानपुर सोना, पूसा हाइब्रिड- 2, प्रिया को- 1, सोलन हरा, सोलन सफेद और अर्का हरित आदि प्रजातियां मौजूद है |

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करेले की खेत करने के लिए जुताई और उवर्रक की मात्रा

करेले को खेत में बोने से 20 दिन पहले खेत की तैयारी शुरू कर दी जाती है। ऐसा करने के लिए, वे पहले खेत को रोटावेटर के सहायता से जोतते हैं। जुताई के बाद खेत को कुछ देर के लिए खुला छोड़ दें। फिर 10 से 12 यूनिट पुरानी गोबर की खाद को प्राकृतिक उर्वरक के रूप में खेत में डाला जाता है और मिट्टी तैयार करने के लिए खेत में कल्टीवेटर का उपयोग करके 2 से 3 बार फिर से तिरछी जुताई की जाती है, ताकि गोबर का खाद अच्छे से मिल जाए। यदि चाहें तो गोबर की खाद की जगह कम्पोस्ट का उपयोग किया जा सकता है।

उर्वरक को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत में पानी दिया जाता है। पानी देने के बाद इसे तब तक ऐसे ही छोड़ दें जब तक कि खेत का पानी सूख न जाए। यदि मिट्टी सूखी है, तो मिट्टी को भुरभुरा करने के लिए दोबारा जुताई करें। जब मिट्टी भुरभुरी हो जाए तो नींव रखें और उसे दबा दें। इससे मिट्टी पूरी तरह समतल हो जायेगी। करेले के पौधे या बीज बोने के लिए 1 से 1.4 फीट चौड़ा और 4 से 5 फीट की दूरी पर क्यारियां तैयार करना चाहिए। फिर इन क्यारियों में 300 किलोग्राम सुपरफॉस्फेट, 200 किलोग्राम यूरिया और 90 किलोग्राम पोटाश मिलाकर मिट्टी में अच्छी तरह मिलना चाहिए।

करेले के बीजों की रोपाई का सही तरीका

करेला की खेती | Bitter Gourd Farming | करेला की खेती से लाभ

करेले के बीजों को बीज और पौधे दोनों के रूप में लगाया जा सकता है। प्रति हेक्टेयर खेत में लगभग 3-4 किलोग्राम करेले के बीज की जरूरत होती है। इसे पौधे के रूप में रोपित करते समय राज्य-पंजीकृत कंपनी से एक महीने पहले तैयार पौधे खरीदना जरूरी है। पौधे बिल्कुल स्वस्थ और एक माह पुराने होने चाहिए।

करेले को पूरे वर्ष उगाया जा सकता है, लेकिन इसके पौधों को फरवरी और मार्च में मैदानी इलाकों के सिंचित क्षेत्रों में और मई से जून तक असिंचित क्षेत्रों में प्रत्यारोपित किया जाता है। क्योंकि करेले के बीज क्यारियों में लगाए जाते हैं, इसलिए खेत में 4 से 5 फीट की दूरी पर क्यारियां बनाए जाते हैं। फिर इन क्यारियों में 2 फीट की दूरी पर बीज बोये जाते हैं। खेत में पौधा रोपाई के लिए 4 फीट की दूरी पर 1 फुट चौड़ा और 1 फुट गहरा गड्ढा तैयार किया जाता है। भविष्य में इन पौधों को गड्ढों में रोपित किया जाता है।

करेले के पौधों की सिंचाई

करेले के पौधों को सामान्य रूप से पानी देने की जरूरत होती है। सर्दियों में पौधों को हर 10-15 दिन में और गर्मियों में हर 5 दिन में पानी देने की जरूरत होती है। बरसात के मौसम में जरूरत के अनुसार ही पानी देना चाहिए।

करेले के पौधों में लगने वाले रोग एवं उनकी रोकथाम

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रेड बीटल कीट रोग  

इस प्रकार का कीट रोग पौधों में प्रारंभिक अवस्था में होता है। यह कीट रोग पौधों की पत्तियों को खाकर उन्हें नुकसान पहुँचाता है तथा इस रोग की सुंडी जड़ों को खाकर उन्हें खराब कर देती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए करेले के पौधों पर कार्बारिल दवा की सही मात्रा का छिड़काव करना जरूरी है।

माहु 

यह रोग पौधों को कीट के रूप में प्रभावित करता है। ये कीड़े छोटे और हरे-पीले रंग के होते हैं। माहु के कीट पत्तियों से रस चूसकर पौधों को खराब कर देते हैं। इस प्रकार का रोग गर्मियों में पौधों को प्रभावित करता है। साइपरमेथ्रिन की सही मात्रा का छिड़काव करके इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है।

पाउडरी मिल्ड्यू रोग 

पौधों पर इस प्रकार का रोग एरीसाइफी सिकोरेसिएटम वायरस के कारण होता है। इस रोग से ग्रस्त होने पर पौधों की पत्तियाँ सफेद हो जाती हैं, जिसके बाद ये पत्तियाँ पीली होकर खराब हो जाती हैं। करेले के पौधों को इस वायरस से बचाने के लिए पौधों पर सही मात्रा में कैथरीन का छिड़काव किया जाता है।

करेले की फ़सल की तुड़ाई, उपज और लाभ

करेले के उत्पादों की तुड़ाई बीज/पौधा लगाने के 3-4 महीने बाद की जा सकती है। फल का रंग एवं आकार अच्छा होने पर तुड़ाई करनी चाहिए। करेले के फलों की तुड़ाई 2-3 सेमी लंबे तने से करनी चाहिए, जिससे फल अधिक दिनों तक ताज़ा बने रहते हैं। करेले की तुड़ाई सप्ताह में दो बार की जाती है।

इसकी प्रजाति की उपज 40-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है। करेले का बाजार मूल्य 10-15 रुपये प्रति किलोग्राम है, इसलिए किसान करेले की एक फसल से 80-100,000 रुपये आसानी से अर्जित कर सकते हैं।

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