दोस्तो आज के इस लेख में मैं आपको तोरई की खेती करने के वारे में सम्पूर्ण जानकारी step by step बताऊंगा की खेती में कोन से तोरई के उन्नत किस्म को लगाने चाहिए, तोरई की बुआई के लिए खेत को कैसे तैयार करनी चाहिए, तोरई के बीज की मात्रा क्या होनी चाहिए, तोरई की बुआई कब करनी चाहिए, तोरई के फसल में सिंचाई कितनी करनी चाहिए, तोरई के फसल से रोग और खरपतवार को कैसे दूर करनी चाहिए सारी चीजे प्रैक्टिकली बताऊंगा
तोरई की खेती से सम्बंधित जानकारी
तोरई की खेती जल्दी उपज के लिए नगद फसल के रूप में उगाया जाता है। तोरई के पौधे लताओं (बेल) के रूप में उगते हैं और इसलिए इन्हें लतादार सब्जियों के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। तोरई को कई जगहों पर तोरी,झिंग्गी और तुरई के नाम से जाना जाता है। इसके पौधों पर लगने वाले फूल पीले रंग के होते हैं, नर और मादा फूल आने का समय भी अलग-अलग होता है। इन फूलों पर उगने वाले फलों का उपयोग मुख्य रूप से सब्जियाँ पकाने के लिए किया जाता है।
तोरई की खेती के लिए बरसात का मौसम सबसे अच्छा मौसम है। हालांकि तोरई की खेती खरीफ की फसल के साथ भी की जा सकती है। यदि आप भी तोरई की खेती करना चाहते हैं, तो यह लेख आपको तोरई कब और कैसे उगाना है इसकी जानकारी प्रदान करेगा।
तोरई की खेती करने के लिए उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान
तोरई की अच्छी फसल के लिए कार्बनिक पदार्थों से भरपूर उपजाऊ मिट्टी की जरूरत होती है। खेती के लिए उपयुक्त जल निकासी क्षेत्रों की जरूरत होती है। सामान्य पी.एच. खेती के लिए उपयुक्त बहुमूल्य भूमि है। इसकी खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। इसके पौधों को अच्छे विकास के लिए शुष्क और आर्द्र जलवायु की जरूरत होती है।
इसके पौधे ठंडी जलवायु सहन नहीं कर पाते। गर्मियों में पौधे अच्छे से विकास करते हैं। इसके पौधे सामान्य तापमान पर अच्छे से अंकुरित होते हैं। इसके पौधे अधिकतम तापमान 35 डिग्री तक ही सहन कर पाते हैं।
तोरई की विभिन्न प्रकार
घिया तोरई
पौधे पर उगने वाले फल गहरे हरे रंग के होते हैं और छोटे घिया जैसे दिखते हैं। यह किस्म आमतौर पर भारत में उगाई जाती है और इसकी त्वचा पतली होती है। इसके ताजे फलों में कई विटामिन होते हैं। जिन्हे सब्जी बनाने के उपयोग में लाया जाता है।
पूसा नसदार
तोरई की यह किस्म बीज रोपाई के 80 दिन बाद फल देना शुरू कर देती है, जबकि परिणामी फलों पर नसें बन जाती हैं। यह फल हल्के हरे और पीले रंग का होता है। इस प्रजाति को जायद फसल के रूप में उगाया जाता है।
सरपुतिया
तोरई की इस किस्म को बीज बोने के बाद विकसित होने में दो महीने लगते हैं। पौधे से निकलने वाले फल छोटे और गुच्छों में लगते हैं। फल में प्रमुख नसें होती हैं और छिलके की बाहरी परत मोटी और कठोर होती है। यह किस्म मुख्यतः मैदानी इलाकों में उगती है।
कोयम्बूर 2
यह किस्म बीज बोने के लगभग 70 दिन बाद फसल पैदा करना शुरू कर देती है। पौधों से निकलने वाले फल का आकार पतला होता है और इसमें बीज कम होते हैं। यह किस्म प्रति हेक्टेयर 250 क्विंटल की उपज देती है।
तोरई के खेत की तैयारी और उवर्रक की मात्रा
तोरई का खेत तैयार करने के लिए सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करें। इस समय के बाद खेतों को कई दिनों तक वैसे ही छोड़ दिया जाता है। फिर प्रति हेक्टेयर 12 से 15 पुरानी खाद को प्राकृतिक उर्वरक के रूप में खेत में डाला जाता है। उस उर्वरक को जुताई वाली मिट्टी में अच्छी तरह मिलाया जाता है। चाहें तो प्राकृतिक खाद की जगह कम्पोस्ट को जैविक खाद के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। उर्वरक को मिट्टी में मिलाने के बाद खेत की जुताई रोटावेटर से की जाती है।
अंतिम जुताई के दौरान एन.पी.के. को रासायनिक उर्वरक के रूप में 100 से 125 किलोग्राम की मात्रा खेत में डालनी चाहिए। फिर पाटे को जमीन पर रखा जाता है और जमीन को समतल किया जाता है। तोरई के पौधें लगाते समय धोरेनुमा क्यारियां तैयार कर लेनी चाहिए। उसके बाद पौधे के विकास के दौरान 15 किलो यूरिया की मात्रा देनी चाहिए। इससे पौधें अच्छे से विकसित होंगे।
तोरई के बीजो की रोपाई का सही समय और सही तरीका
तोरई के बीजों को बीज और पौधे दोनों के रूप में लगाया जाता है, हालाँकि ज्यादातर किसान भाई इन्हें बीज के रूप में ही लगाना पसंद करते हैं। पौधा रोपाई में अधिक समय और लागत लगती है। पौधें नर्सरी से भी खरीदे जा सकते हैं। तोरई को खेत में बोने से पहले उसे उचित मात्रा में थीरम या बाविस्टिन से उपचारित कर लें। इससे बीजों को मूल रोग से मुक्ति मिल जाएगी। एक हेक्टेयर तोरई के खेत में दो से तीन किलोग्राम बीज की आवश्यकता होती है। खेत में बुआई के लिए क्यारियों की कतारें तैयार की जाती हैं।
तोरई के बीजों की रोपाई मिट्टी में डेढ़ से दो फीट की दूरी पर की जाती है। तो यह पौधा पृथ्वी की सतह पर अच्छे से फैल सकता है। इन तैयार क्यारियों के बीच 3 से 4 मीटर की दूरी रखी जाती है। इसके बीज ख़रीफ़ के मौसम में बोए जाते हैं। यदि आप बरसात के मौसम में फसल लेना चाहते हैं, तो बीज जनवरी में बोया जाना चाहिए, और खरीफ मौसम में फसल के लिए, बीज जून में बोए जाते हैं।
तोरई के पौधों की सिंचाई
तोरई के पौधों को आवश्यकतानुसार पानी दिया जाता है। यदि बीज जून में बोए गए थे, तो बीज बोने के तुरंत बाद पहला पानी देना चाहिए, और फिर खेत में नमी बनाए रखने के लिए हर तीन से चार दिन में हल्का पानी देना चाहिए। तभी बीज का अंकुरण सही ढंग से हो पाता है। इसके अलावा बरसात के मौसम में रोपाई करते समय पौधों को आवश्यकतानुसार ही पानी देना चाहिए।
कैसे करें तोरई के पौधों में खरपतवार नियंत्रण?
तोरई फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए नीलाई-गुड़ाई विधि का उपयोग किया जाता है। पौधों की पहली निराई-गुड़ाई बुआई के 15 दिन बाद की जाती है। अगली निराई-गुड़ाई पहली निराई के 15-20 दिन बाद करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, यदि आप खरपतवारों को रासायनिक रूप से नियंत्रित करने की योजना बना रहे हैं, तो आपको बुआई से पहले खेत में मध्यम मात्रा में बासालीन लगानी चाहिए।
तोरई के पौधों में लगने वाले प्रमुख रोग तथा उसके रोकथाम
लालड़ी
इस प्रकार का रोग प्रायः तोरई के पौधों में शुरुआत में ही बीज के अंकुरण के समय लगता है। यह रोग तोरई के पौधों को कीट के रूप में प्रभावित करता है। इस रोग की सुंडी पौधों की जड़ों को खाकर उन्हें पूरी तरह खराब कर देती है। इस कीट रोग का रंग चमकीला लाल होता है। तोरई के पौधों को इस रोग से बचाने के लिए बीज के अंकुरण के समय ही नीम के तेल का छिड़काव किया जाता है।
फल मक्खी
इस प्रकार का रोग पौधों पर फल लगने के दौरान प्रभावित करता है। फल मक्खी रोग पत्तियों और फलों पर अंडे देकर पौधों को नुकसान पहुँचाता है। इसके बाद फल पर उगने वाले कीड़े उसे नुकसान पहुंचाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधे पर नीम का काढ़ा या गौमूत्र में माइक्रोजाइम मिलाकर छिड़काव करें।
जड़ सड़न
इस प्रकार की बीमारी अक्सर खेत में पानी भर जाने पर होती है। इस रोग से प्रभावित पौधे का तना काला पड़ जाता है और मिट्टी की सतह से सड़ जाता है। उसके बाद पत्तियाँ पूरी तरह खराब हो जाती हैं। जो पौधे इस रोग से अधिक प्रभावित होते हैं वे कुछ समय बाद मुरझा जाते हैं और मर जाते हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों की जड़ों पर बाविस्टिन या मैंकोजेब की उचित मात्रा का छिड़काव किया जाता है।
मोजैक
इस प्रकार का रोग शीर्षस्थ पौधों को विषाणु के रूप में प्रभावित करता है। यह रोग पौधों की पत्तियों को प्रभावित कर उनकी वृद्धि को पूरी तरह से रोक देता है। समय के साथ पत्तियाँ मुरझाकर गिर जाती हैं, जिससे उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस रोग से बचाव के लिए नीम के तेल का छिड़काव किया जाता है।
तोरई की तुड़ाई, पैदावार और लाभ
तोरई की उन्नत किस्मों को बीज रोपाई के बाद लगभग 70 से 80 दिन की आवश्यकता होती है। फलों को कच्चा काटा जाता है और सब्जियों के रूप में उपयोग किया जाता है। यदि आप बीज के रूप में फसल प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपको फल पकने तक इंतजार करना होगा। फलों की तुड़ाई सप्ताह में एक बार की जाती है। तुड़ाई करते समय फलों को डंठल से थोड़ी दूरी पर से तोड़ना चाहिए। इससे आप फल को अधिक समय तक ताज़ा रख सकते हैं।
उन्नत किस्मों के आधार पर एक हेक्टेयर तोरई के खेत से 250 क्विंटल की उपज प्राप्त की जा सकती है। तोरई का बाज़ारी मूल्य 5 से 10 रुपये प्रति किलोग्राम के बीच है, जिससे किसान भाई अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं और एक फसल से 1.25 लाख तक की कमाई कर सकते हैं।
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